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सिसकता लोकतंत्र

लोकतंत्र को सर्वाधिक उपयुक्त शासन पद्धति के रुप में हमारे देश में स्वीकार किया गया।तत्कालीन राजनेताओं ने तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर यह लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाई थी।उस समय राजनीति सेवा का साधन हुआ करती थी।परन्तु वर्तमान समय में यह पेशा बन गई है।कालक्रम से इसमें अनेक विसंगतियों का प्रवेश हो गया है।आज कोई कुछ भी कहे,परहित और देशहित का भाव गौड़ हो गया है,स्वहित मुख्य हो गया है।
आज के राजनयिक वेतनभोगी और सुविधाभोगी पेशेवर लोग हैं।अनगिनत भत्ते और पेंशन के साथ मुफ्त आवास,चिकित्सा सुविधा,क्षेत्रीय भत्ता,सदन में उपस्थित होने का भत्ता, मुफ्त के सुरक्षा कर्मी,मुफ्त रेल और हवाई यात्राएँ और न जाने क्या क्या।यहाँ तक तो ठीक,इसके बाद का खेल और भी विचित्र जो आम आदमी के समझ से परे।
कहने को तो ये राजनीतिज्ञ जनता के सेवक हैं और हाशिए पर खड़े लोगों की आँखों के आँसू पोंछनें के लिए संकल्पित हैं।पर क्या हाशिए पर खड़े लोगों की पहुँच कभी इन तक बन पाएगी?क्या ये कभी आम आदमी के लिए सुलभ हो पाते हैं?ज़रुरत मंद व्यक्ति क्या अपनी बातें आसानी से इन तक पहुँचाने में सफल हो पाता है?
बहुत कम ही राजनेता हैं जो आसानी से उपलब्ध हो पाते हैं।इन तक पहुँचने के लिए कई घेरों से गुज़रना पड़ता है।सबसे पहले तो आपको इनके किसी विश्वास पात्र को पकड़ना होगा।यदि विश्वास पात्र की कृपा मिली तो आपको इनके पास जाने के लिए कतार में खड़े होकर इंतजार करना पड़ेगा। काफ़ी मशक्कत के बाद यदि आप राजनेता तक पहुँच भी गए तो आपकी बात को राजनीतिक चश्मे से देखा जाएगा और राजनीति के तराज़ू पर तौल कर निर्णय लिया जाएगा कि आपकी मदद करनी है या नहीं।
यह तो एक बानगी मात्र है।मैं ये नहीं कहता कि ऐसा हर राजनेता करता है पर अधिकांश ऐसे ही लोग हैं। ऐसे में जन और तंत्र का समन्वय नहीं बन पाता और जनतांत्रिक व्यवस्था निरर्थक हो जाती है।
राजनीतिक दल भी सिर्फ सैद्धांतिक ही रह गए हैं। आज राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी अब हानि-लाभ के तराज़ू पर तौल कर अपने अपने आका का चयन करते हैं।इनके लिए भी आमदनी के स्रोत जुटाने वाले की ही जय जयकार करने की मजबूरी है।
ऐसे में शासन-प्रशासन में तालमेल नहीं बन पाता और जनतंत्र अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता।आज के समय में राजनेताओं को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने हेतु जबतक व्यवस्था नहीं होगी तब तक सुधार संभव नहीं है।जब सांसद विधायक मंत्री सभी वेतन लेते हैं तो इनकी भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।राजनेताओं की दख़ल अंदाज़ी लोकशाही में भी है।बड़े-बड़े पदाधिकारी भी इनकी जी हुजूरी करते हैं।अच्छी जगह ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए ये इन राजनेताओं को उपकृत करते हैं।ऐसे में लोकतंत्र सिसकता हुआ ही लगता है और आम आदमी हाशिए पर जीने को मजबूर ही रहेगा।

ओंकार नाथ सिंह
अध्यक्ष
मानगो विकास समिति

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