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Jamshedpur: टाटा वर्कर्स यूनियन अब एक महत्वहीन संगठन, पहले था टीडब्ल्यूयू का जलवा

एक समय था जब राष्ट्रीय स्तर पर टाटा वर्कर्स यूनियन का डंका बजता था। इसका चुनाव विधानसभा चुनावों की तरह महत्व रखता था और अध्यक्ष पद पर चयनित व्यक्ति की तो बात ही छोड़िए, एक अदना सा कमेटी सदस्य से भी कम्पनी के अधिकारियों का पसीना छूट जाता था। यूनियन चुनाव की घोषणा होते ही शहर का माहौल गर्म हो जाता था। चाय की दुकान से लेकर चौक-चौराहों पर सैकड़ों लोग इसकी चर्चा करते सुने जाते थे। यूनियन अध्यक्ष जब कम्पनी के उच्च अधिकारी से बात करता था तो उसे सम्मान पूर्वक न सिर्फ सुना जाता था वरन् उसकी बातों को तवज्जो दी जाती थी। पर अब वो बात नहीं रही। अब कम्पनी फैसले लेती है और अमल भी करवाती है। यूनियन का न तो कुछ सुना जाता है न कोई बोलने की हिम्मत करता है।
इसके अनेक कारण भी हैं। सबसे पहला कारण कम्पनी में स्थाई कर्मचारियों की नगण्य संख्या है। 1990 के बाद से कम्पनी ने अस्थायी कर्मचारियों की छुट्टी करनी शुरू की। इसमें यूनियन के लोगों की भी भागीदारी रही। उन्हें खूब उपकृत भी किया गया।बाद में स्थाई कर्मचारियों पर भी गाज गिरने लगी। अनेक विभाग बंद किए जाने लगे तथा कृत्रिम रूप से सरप्लस कर उन्हें हटाने का खुला खेल शुरू हुआ।इसमें तत्कालीन प्रबंधन व सरकार की भी मिलीभगत रही।
टाउन डिवीजन को जुस्को बना दिया गया।उस समय शहर भर में यह कहावत शुरू हुई ” टिस्को से भए जुस्को, जुस्को से खिसको”।इस खेल में सबसे ज्यादा सहायक बने राजनेताओं के पुत्र-पौत्र, दामाद जो उस समय मैनेजर के पद पर आसीन थे और मलाई चाभ रहे थे। यद्यपि बाद के दिनों में उनमें से अनेक को भी बुरे दिन देखने पड़े।
वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा के नाम पर भी लोगों को खूब डराया गया तथा इ एस एस जैसी स्कीम लाकर कर्मचारियों की छटनी की गई।सबसे पहला विभाग जो पूरी तरह नष्ट भ्रष्ट किया गया। कम्पनी के स्कूलों को प्राइवेट एजेंसियों को सौंप कर शिक्षा विभाग को ही समाप्त किया गया। इसी प्रकार के खेल हेल्थ डिपार्टमेंट में भी हुए और ये सारे खेल यूनियन की आंखों के सामने होते रहे। बदले में यूनियन के लोग तफरीह पर भेजे जाते रहे।
ये कुछ तथ्य हैं। सारी बातें बहुत लम्बी हो जाएंगी। मेरे सहित पूरा शहर इन बातों का गवाह रहा है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यूनियन एक महत्वहीन संस्था है और मात्र चार-पांच हज़ार लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इससे बड़ी संस्थाएँ तो निगम है जहाँ पार्षद भी अपने होने का एहसास कराता है। (लेखक ओंकार नाथ सिंह, रिटायर्ड टीचर)

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