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साहित्य कोना: समाज को आइना दिखाती कविता

” —क्या दिखाना चाहते हो “

क्या दिखाने आए थे और क्या दिखाना चाहते हो।
था अमन पैगाम हाथों, घर जलाना चाहते हो।

कल तलक राम-ओ-रहीमा एक मिट्टी के बने थे,
आज अपनी फितरतों से फ़र्क लाना चाहते हो।

कल तलक डोली सजी थी शौर्य के बारात की,
और शौर्या पालकी में मेहंदी न उतरी हाथ की।

जिस सकीना ने ओढ़ाई लाज की लाली चुनकर,
तुम जिगर जल्लाद बन उसको मिटाना चाहते हो।

जिस जरीना ने सजाया हाथ भर भर चूड़ियाँ
और सब उस्मान चाचा की रंगी वो खिड़कियाँ,

और उस बेदाग दामन को बनाने दागदार
बन सियासत का लहू तुम फैल जाना चाहते हो।

जब ज़रीना हूर बन रुख़सत हुई थी गाँव से,
बन बिछे कालीन सब, मिट्टी न छुई पाँव से,

सबरी चाची ने बड़े अरमान से जिनको लगाया
नर्म पैरों के महावर को छुड़ाना चाहते हो।

यह न भूलो आग से जो खेलते, जलते हैं खुद
घर किसी का जो उजाड़े वे उजड़ते ही हैं खुद।

रहबरी तो कर न पाए! राह में काँटा बने ,
करके खुद आँसू का सौदा मुस्कुराना चाहते हो।

ओंकार नाथ सिंह
अध्यक्ष
मानगो विकास समिति

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